दर्शन शास्त्र ~~
१ . सांख्य दर्शन == भगवान् कपिल ने
सांख्यशास्त्र का प्रणयन किया है। इसमें
“त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थ:” आदि ६ अध्याय है।
इसके पहले अध्याय में विषय-निरूपण, दूसरे अध्याय में प्रकृति के कार्यों
का वर्णन, तीसरे में विषयों से वैराग्य, चौथे में वैराग्य के लिए पिङ्गला
वेश्या की कथा आती है। पांचवें में परपक्ष का खण्डन तथा छठें अध्याय में
पांचों का सारांश बताया है। इस शास्त्र का प्रयोजन प्रकृति और पुरूष के
विवेकपूर्वक इस लोक तथा परलोक के भोगों की प्राप्ति सहित जीव की मुक्ति है।
२. पतञ्जलि योगदर्शन == भगवान् पतञ्जलि जी ने योगशास्त्र का निर्माण किये हैं, उसमें “अथ योगानुशासनम्’ इत्यादि चार पाद है।
प्रथम पाद में चित्तवृत्ति का निरोधपूर्वक वैराग्य तथा समाधि के साधनों का
वर्णन है। दूसरें पाद में विक्षिप्तचित्त की समाधि के लिए
यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान और समाधि नाम से योग के आठ
अंगों का वर्णन है। तीसरे पाद में योग की विभूतियों का वर्णन है और चौथे
कैवल्यपाद में कैवल्य मुक्ति का वर्णन है।
इस शास्त्र का प्रयोजन विषयाकार वृत्ति को रोककर ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा कैवल्यमुक्ति है
३ . पाशुपत दर्शन== इसे भगवान् पशुपति ने “अथात: पाशुपतयोगविधिं
व्याख्यास्याम:” इत्यादि पांच अध्यायों में बनाया है। इन पांचों अध्यायों
में कार्य अविद्या उपाधि वाला जीव पशु कहा गया है तथा कारण माया उपाधि वाला
शिव– पशुपति है।
जीव के जन्म-मरण रूपी पाश से मुक्ति ही इसका प्रयोजन है।
जिस प्रकार सम्पूर्ण नदियों का जल सरल तथा कुटिल मार्गों से बहती हुई
समुद्र में जाकर मिलती है, उसी प्रकार वेदों से लेकर पांचरात्र पर्यन्त
अथवा उपनिषदों से लेकर हनुमान चालीसा पर्यन्त सभी सनातन धर्मग्रन्थों का
साक्षात् या परम्परा से भगवत् प्राप्ति ही प्रयोजन है।
इन सभी ग्रन्थों का वेदानुकूल अंश ग्राह्य है तथा वेदविरुद्ध त्याज्य है।
【पूज्य गुरुदेव भगवान् प्रणीत “गुरुवंश-पुराण” के सत्ययुग खण्ड के प्रथम परिच्छेद के छठवें अध्याय के आधार पर】
ॐ आदि गुरूवे नम :!ॐ नारायण हरि !