Agnivesh Gurudev Agnivesh Gurudev

जो यह कहते हैं कि विवेकबुद्धि की तराजू पर तोलना मूर्खता है, वे निश्चय अदूरदर्शी है

जो यह कहते हैं कि विवेकबुद्धि की तराजू पर तोलना मूर्खता है, वे निश्चय अदूरदर्शी है। मान लीजिए, एक ईसाई किसी मुसलमान से इस प्रकार झगड़ रहा है :—”मेरा धर्म प्रत्यक्ष ईश्वर ने ईसा से कहा है।” मुसलमान कहता है :—”मेरा भी धर्म ईश्वर-प्रणीत है।” इस पर ईसाई जोर देकर बोला—”तेरी धर्म पुस्तक में बहुत सी झूठी बात लिखी हैं, तेरा धर्म कहता है कि हर एक मनुष्य को सीधे से नहीं तो जबरदस्ती मुसलमान बनाओ। यदि ऐसा करने में किसी की हत्या भी करनी पड़े तो पाप नहीं है। मुहम्मद के धर्म प्रचारक को स्वर्ग मिलेगा।” मुसलमान ने कहा :—”मेरा धर्म जो लिखा है सो सब ठीक है।” ईसाई ने उत्तर दिया :—”ऐसी बातें मेरी धर्म पुस्तक में नहीं लिखी हैं, इससे वे झूठी नहीं हैं।”
मुसलमान झल्लाकर बोला:— ”तेरी पुस्तक से मुझे क्या प्रयोजन है? काफिरों को मार डालने की आज्ञा को झूँठ करने का तुझे क्या अधिकार है? तेरा कथन है कि ईसा का लिखा सब सच है मैं कहता हूँ मुहम्मद जो कुछ कह गये हैं, वही ठीक है।” इस प्रकार के प्रश्नोत्तरों से दोनों को लाभ नहीं पहुँचता। एक दूसरे की धर्मपुस्तक को बुरी दृष्टि से देखते हैं इससे वे निर्णय नहीं कर सकते कि किस पुस्तक के नीतितत्व श्रेष्ठ हैं। यदि विवेचक बुद्धि को दोनों काम में लावें तो सत्य वस्तु का निर्णय करना कठिन न होगा। किसी धर्म पुस्तक पर विश्वास न होने पर भी उसमें लिखी हुई किसी खास बात को यदि विवेचक बुद्धि स्वीकार कर ले तो तुरन्त समाधान हो जाता है।
हम जिसे विश्वास कहते हैं वह भी विवेचक बुद्धि से ही उत्पन्न हुआ है। परन्तु यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि दो महात्माओं के कहे हुए जुदे-जुदे या परस्पर विरुद्ध विधानों की परीक्षा करने के शक्ति हमारी विवेचक बुद्धि में है या नहीं? यदि धर्मशास्त्र इन्द्रियातीत है और उसकी मीमाँसा करना हमारी शक्ति के बाहर का काम हो तो समझ लेना चाहिये कि पागलों की व्यर्थ बकबक या झूठी किस्सा कहानियों की पुस्तकों से धर्मशास्त्र का अधिक महत्व नहीं है। धर्म ही मानवी अन्तःकरण के विकास का फल है। अन्तःकरण के विकास के साथ-साथ धर्म मार्ग चल निकले हैं। धर्म का अस्तित्व पुस्तकों पर नहीं किन्तु मानवी अन्तःकरण पर अवलम्बित है। पुस्तकें तो मनुष्यों की मनोवृत्ति के दृश्यरूप मात्र हैं। पुस्तकों से मनुष्यों के अन्तःकरण नहीं बने हैं किन्तु मनुष्यों के अन्तःकरणों से पुस्तकों का आविर्भाव हुआ है। मानवी अन्तःकरण का विकास ‘कारण’ और ग्रन्थ रचना उसका ‘कार्य’ है, ‘कारण’ नहीं। विवेचक बुद्धि की कसौटी पर रख कर यदि हम किसी कार्य को करेंगे तो उसमें धोखा नहीं उठाना पड़ेगा। धर्म को भी उस कसौटी पर परख लें तो उसमें हमारी हानि ही क्या है?
ॐ नारायण हरि ! ॐ आदि गुरूवे नम :!

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