गुरु
बनना बहुत आसान है लेकिन गुरु के कर्तव्य बहुत कठिन होते है। गुरु अपने
शिष्य का संतान की भांति पल पल मार्गदर्शन करता है, उनपर आयी समस्या को
अपने ऊपर ले लेता है। शिष्य के कर्मो का भार अपने ऊपर ले लेता है। जो समर्थ
गुरु होगा वो बहुत सोच समझकर शिष्य बनाएगा क्योकि उसे पता होता है गुरु के
कर्तव्य, वो शिष्यो की भीड़ इकट्ठी नही करेगा, वो चुनेगा कुछ शिष्यो को जो
आगे चलकर उनकी गुरु परम्परा का मान बनाये रखे । गुरु शिष्य का सबन्ध कोई एक
जन्म का नही होता जैसे बाकी सांसारिक सबन्ध होते है
ये सबन्ध तो जन्मों का होता है। अगर आप किसी स्वार्थ के कारण किसी सिद्धि
शक्ति के लालच में गुरु बनाते है तो व्यर्थ है गुरु बनाना, इससे अच्छा तो
ना ही बनाओ क्योकि स्वार्थ से बने सबन्ध ज्यादा समय तक नही टिकते। स्वार्थ
के सबन्धो में वो प्रेम वो भाव नही होता जो गुरु के दर्शन मात्र से आंखों
में आँशु आ जाये। गुरु बनाओ तो निस्वार्थ भाव से प्रभु से मिलन के लिए ।
अगर कोई इच्छा लेकर गुरु को ढूंढेगे तो अपने जैसा ही गुरु पाओगे इच्छा रखने
वाला, फिर कहते फिरते है सब पाखंडी है, प्रभु उसको वैसा ही देता है जैसा
इंसान सयम होता है । क्योकि कर्म के अनुसार ही प्रभु फल देते है। प्रभु के
पास भी जाते है तो स्वार्थ के कारण सिर्फ मांगने ही जाते है। एक गुरु ही है
जो सांसारिक और आधात्मिक दोनो जीवन को सफ़ल बनाता है। जीवन जीने में अलग ही
आनन्द आता है जब गुरु होते है किसी प्रकार की चिंता ही नही होती। सब भाग
दौड़ खत्म हो जाती है। किसी भी परिसिथति को सहने की क्षमता आ जाती है,
विपत्ति भरा समय भी कब निकल जाता है पता ही नही लगता ।
ॐ नारायण हरि ! ॐ आदि गुरूवे नम :!
गुरु बनना बहुत आसान है लेकिन गुरु के कर्तव्य बहुत कठिन होते है।
